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यह लेख डेली ओसे लिया गया है जिसे अंग्रेजी में मां आनंद शीला ने लिखा है.

दी लल्लनटॉप के लिए हिंदी में यहां प्रस्तुत कर रही हैं शिप्रा किरण

इसे हम दी लल्लनटॉप पर तीन भागों में पढ़वाएंगे. प्रस्तुत है पहला एपिसोड :


भगवान रजनीश  के पूना आते ही हर रोज़ 5 हजार से भी ज्यादा लोग उन्हें सुनने आने लगे. भारत के ही पश्चिमी हिस्सों से लोग हवाई यात्राएं कर के आते. उनके पूना वाले आश्रम की वजह से भारत का पर्यटन लगभग 15 प्रतिशत बढ़ गया. पूना दुनिया के नक़्शे पर पहचाना जाने लगा बल्कि उसे एक नई पहचान मिली. यहां तक की टूरिस्ट गाइड भी पूना के साथ ओशो आश्रम के चर्चा जरूर करते.

पूना में हमारे आने  से यहां की आर्थिक स्थिति भी मजबूत हुई. विदेशी सैलानियों की मदद से मंदी के दौर में पूना के व्यापारियों के लिए यह एक बढ़िया आर्थिक श्रोत साबित हुआ. ये शहर और भी खूबसूरत हो गया.

लेकिन आश्रम के विस्तार के लिए और पैसों की जरूरत थी. लेकिन ओशो दान पर निर्भर नहीं रहना चाहते थे. बिना किसी निजी लाभ के कोई पैसे देने को तैयार नहीं होता. जब तक उनका अहं तुष्ट होता रहता तब तक वो पैसे देते रहते. ओशो इस तरह की चीजों को पसंद नहीं करते थे. वे हमें हमेशा वक़्त की कीमत समझाया करते. वे कहते कि किसी भी चीज को कल पर मत टालो.

बल्कि कल के काम को आज ही निपटाओ. उनके लिए 'कल' जैसी कोई चीज नहीं थी. जो है वह 'अभी' है. इसी क्षण में है.

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वे अपने आश्रम के काम को जल्द से जल्द बढ़ाना चाहते थे. वे एक नए मानव का निर्माण करना चाहते थे. एक ऐसे मानव कि जिसमें महात्मा बुद्ध जैसी संभावनाएं हों. उनके जैसी ही प्रतिभा हो. उसके भीतर भौतिकता और अध्यात्मिकता का कोई द्वंद्व न हो. वह अपने आप में पूर्ण हो.

उन्होंने बताया कि ज़ोरबा और बुद्ध के बीच एक तरह का मेल है. ज़ोरबा जहां पृथ्वी और जीवन यानी भौतिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं वहीं बुद्ध ईश्वरीय ज्ञान का. इन दोनों का मिलन स्वर्ग और पृथ्वी के मिलन जैसा है. ओशो स्त्री व पुरुष के बीच की दूरी को, सर्दी-गर्मी के बीच के अंतर को, उनके द्वैत्व को मिटा देना चाहते थे. वह सेक्स और समाधि को एकसाथ लाना चाहते थे.

वह जिस नए मनुष्य की बात कर रहे थे वो कैसा होगा? यह हिम्मती हो. वो बेईमान न हो. सच्चा हो. वह पूरी तरह मुक्त हो. अपनी आजादी का जश्न मनाने वाला हो. प्रेम, खुशी, जीवन से भरपूर हो. यह जाति, धर्म, राष्ट्र या विचारधाराओं के बंधन से मुक्त हो. यह ना तो पूंजीवादी है, ना ही कम्यूनिस्ट. यह किसी एक सांचे में नहीं बंधा. यह सिर्फ और सिर्फ इंसान हो. एक सम्पूर्ण इंसान.

भगवान रजनीश एक अच्छे उद्योगपति भी थे. वे अपने उत्पादों की कीमत और उसके बाज़ार को बखूबी समझते थे. वे आश्रम की मदद से सारी कीमतें वसूल लेना चाहते थे. आश्रम के लिए प्रवेश शुल्क भी उनके ही कहने पर ही रखा गया. उनके आश्रम के थेरेपिस्ट्स (चिकित्सक/डॉक्टर) भी उन्हें इस काम में मदद करते. आश्रम में थेरेपी भोजन की तरह दी जाती. सैलानी अपने पसंद की थेरेपी कराते और उसकी कीमत भी अदा करते. आश्रम दूसरी सुविधाओं के लिए भी फीस लिया करता. पैसा वहां पानी की तरह बहता था.

70 के  दशक के शुरुआती दिनों में इन थेरेपिस्ट ने विदेशियों के मनोविज्ञान को बहुत प्रभावित किया. उनके लिए ये थेरेपी आधुनिक मनुष्य को संतुष्ट/तृप्त करने का एक ज़रिया थीं. अलग-अलग ग्रुप के लोगों पर इनका अलग-अलग प्रभाव पड़ता. कुछ लोग इसे तमगे की तरह लेते तो कुछ इसे प्राचीन विधियों से जोड़ा करते. कुछ को तो इनकी लत लग जाती थी.

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साभार- नेटफ्लिक्स

चिकित्सकों के ये समूह गुस्से, नफरत, ईर्ष्या, शारीरिक कुंठाओं जैसे मनोभावों से मुक्त होने में मददगार साबित होते. भगवान रजनीश का मानना था कि जो मनुष्य इन नकारात्मक भावों से मुक्त हो जाएगा वह आसानी से अपने भीतर की, अपने अंतर्मन की यात्रा कर पाएगा.  कई तरह की चिकित्साओं में आक्रामक स्वभाव को नियंत्रित करने वाली थेरेपी वहां सबसे अधिक प्रचलित थी.

सेक्सुअलिटी को ज्यादातर समस्याओं का कारण माना जाता इसलिए इन सारी थेरेपी के केंद्र में सेक्सुअलिटी को ही रखा जाता था. ओशो हमें ईर्ष्या और अधिकार की भावना से मुक्त करना चाहते थे. वह सेक्सुअलिटी के मसले पर हमें नैतिकता और अपराधबोध से आगे निकल जाने की सलाह देते. यहां कुछ लोगों ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए हिंसा और सेक्स-संबंधों की मदद ली. लेकिन इसके लिए उनपर किसी तरह का कोई दबाव नहीं होता था. वो अपनी मर्जी से ये करते.

भारत में इस तरह की चिकित्सा के बारे में कोई जानकारी नहीं है. इसलिए भारतीय इन चीजों से डरते थे तभी भारतीयों को आश्रम में इस तरह की थेरेपी में शामिल होने की इजाज़त नहीं थी. आश्रम- प्रशासन को यह भय था कि स्थानीय लोग आश्रम के बारे में दुष्प्रचार कर सकते हैं. जिससे लोगों में डर पैदा हो सकता है. एक नज़र में यह भारतीयों के साथ भेदभाव जैसी बात लग सकती है लेकिन ये सच है कि कुछ थेरेपीज वास्तव में डरावनी थीं.

भारतीयों को आश्रम के कार्यों में शामिल न होने दिए जाने के कारण भगवान पर कई तरह के सवाल उठाए गए. उन्होंने जवाब भी दिए. उन्होंने कहा कि पश्चिमी जीवन शैली भारतीयों की जीवन शैली से अलग है. उनकी सोच अलग है. उनके लिए इस तरह की खुली या एक्टिव थेरेपी की जरूरत होती है. जबकि भारतीयों के लिए योग और ध्यान जैसी थेरेपी की जरूरत अधिक है.'

यह सुनकर भारतीयों को लगा कि वे आध्यात्मिक रूप से अधिक समृद्ध हैं. कुछ सन्यासिनों में अध्यात्मिक अहं (उच्चता) का भाव आने लगा था. जबकि भगवान के इस कथन का मतलब सिर्फ भारतीयों के असंतोष को समाप्त कर उसपर नियन्त्रण करना था. भारतीयों को इस पूरी प्रक्रिया से दूर रखने के पीछे एक कारण यह भी था कि ओशो अपने आश्रम को हर तरह की अफवाहों से दूर रखना चाहते थे.

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वे अपने चिकित्सा समूहों और चिकित्सकों के बाज़ार मूल्य को लेकर काफी सजग थे. वे सार्वजनिक स्थलों पर भी उनकी प्रशंसा किया करते. ओशो एक चालाक व्यापारी थे. उन्हें सिर्फ अमीरों में दिलचस्पी थी. उन्हें पता था कि अमीर लोग ही उनके ऐशो-आराम का ख्याल रख सकते हैं. वे लोगों का फायदा उठाने में माहिर थे. जो उनकी बातों से सहमत नहीं होते थे उन्हें वे आश्रम से बाहर निकाल देते. वे सिर्फ दुधारू गाय की ही पूजा करते.

वहां की संन्यासिनों की बातों से ऐसा लगता जैसे बिना इस तरह की चिकित्सा के किसी भी इंसान को ज्ञान की प्राप्ति हो ही नहीं सकती. वे इसकी आध्यात्मिक व्याख्या किया करतीं. वे इसे पैसा कमाने के साधन के तौर पर नहीं देख पाती थीं.

भगवान इन चिकित्साओं के साथ-साथ दवाओं का भी इस्तेमाल किया करते. ताकि इसी बहाने उनकी बिक्री हो सके. वे एक होशियार विक्रेता थे. वह कुछ भी बेच सकते थे. उनके ग्राहक भी निश्चित थे. कोई भी उन्हें मना नहीं करता था. उनकी बातों पर कोई सवाल नहीं उठा सकता था. संन्यासिनों के लिए वे एकमात्र ज्ञान का साधन थे. उनके सर्वेसर्वा थे.

ये थेरेपी समूह महंगे हुआ करते. कई संन्यासिनों के पास आय का कोई साधन नहीं था. बचे हुए पैसे बहुत पहले ख़त्म हो चुके थे. हममे से कुछ बहुत गरीब थे. लेकिन आश्रम में रहने के लिए पैसों की जरूरत थी और हम भगवान के साथ रहने के लिए कुछ भी कर सकते थे. हम किसी भी तरीके से पैसे कमाने को तैयार थे. ताकि हम भगवान् के साथ आश्रम में रह सकें. कुछ ने तो पैसों के लिए अपने शरीर का व्यापार करना भी शुरू कर दिया.

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भगवान रजनीश की शिक्षाएं किसी भी तरह के नैतिक पाठ से कोसों दूर थीं. यही कारण था कि उनके शिष्यों में किसी तरह का कोई अपराधबोध नहीं था. भगवान जीवन की तुलना एक ऐसी वेश्या से किया करते जो इंसान के अध्यात्मिक विकास के लिए जरूरी होती है.

प्राचीन तंत्र गुरुओं की तरह उनका मानना था- 'वेश्यावृत्ति एक तरह का 'ध्यान' है. वेश्यावृत्ति के माध्यम से यह समझा जा सकता है. अपनी चेतना से पूरी तरह कटकर इंसानी शरीर सेक्स की गतिविधि में किस तरह सक्रिय होता है. यह एक दर्शक के रूप में चीजों को करीब से देखने का एक अच्छा अवसर देता है.' इस विषय पर उनके पास ढेरों कहानियां होतीं. वह बताते कि कभी किसी के बारे कोई निश्चित  नहीं बना लेनी चाहिए बल्कि जीवन की हर परिस्थिति से कुछ न कुछ सीखते जाना चाहिए.

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साभार- ओशो फाउन्डेशन

एक ऋषि ने एक बार अपने शिष्य को अध्ययन की अंतिम परीक्षा से गुजरने के लिए कुछ दिन एक राजा के दरबार में रहने को कहा. शिष्य राजा के यहां गया. उसने सोचा- 'हो सकता है राजा मेरे गुरु से भी बड़ा विद्वान् हो. तभी तो इतने महान ऋषि भी अध्ययन के अंतिम कुछ पाठों के लिए अपने शिष्यों को राजा के पास भेजा करते हैं.

'वह इस बात पर हैरान था कि उसके गुरु जैसा विद्वान अपने शिष्य को एक सामान्य से दुनियावी व्यक्ति के पास कैसे भेज सकता है? एक ऐसे आदमी के पास जो बिना कुछ सोचे-समझे हजारों लोगों की हत्या कर देता है. इस बात में जरूर कोई न कोई राज छुपा है.'

खैर, वो राजा के दरबार में गया. शाम का समय था. राजा के मनोरंजन का समय. राजा शराब पी रहा था. सुंदर स्त्रियों के नृत्य देख रहा था. युवा तपस्वी ठगा सा रह गया. उसने राजा से कहा मैं तो यहाँ कुछ दिन रहने की सोच के आया था लेकिन इस नरक में तो मैं एक पल भी नहीं रह सकता. मुझे समझ नहीं आ रहा कि गुरु जी आखिर मुझे यहां भेजा ही क्यों?

राजा ने जवाब दिया- 'जब तुम्हारे गुरु ने तुम्हें यहां भेजा है तो इसके पीछे कोई न कोई वजह जरूर होगी. इतनी जल्द किसी निश्चय पर मत पहुंचो. दो तीन दिन बहुत ज्यादा नहीं होते. और याद रखो कि ये तुम्हारी आखिरी परीक्षा है. इसीलिए कुछ दिन रुको और देखो.

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तपस्वी ने लाचारी और गुस्से में सोचा- 'मुझ जैसे ज्ञानी को यह क्या सिखाएगा? लेकिन कर भी क्या सकता हूं. गुरु के आदेश को टाल भी नहीं सकता. किसी भी तरह तीन दिन गुजारने ही होंगे.'

राजा ने कहा- 'अब धीरे धीरे तुम शांत हो रहे हो. अब सबसे पहले तुम नहा लो. कुछ भी मत सोचो. किसी चीज को करीब से और गहराई से जाने बिना कभी किसी अंतिम निर्णय पर मत पहुंचो.

तीन दिन यहीं रहो. चीजों को देखो. समझो. अभी कुछ दिन तुम्हें मेरे हिसाब से चलना होगा उसके बाद तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है तुम चाहे जो सोचो. अगर अभी तुम मेरे कहे अनुसार काम नहीं करोगे तो बार-बार, जीवन भर तुम्हें यहां आना पड़ेगा.'

वह युवक नहाने गया. उसने इतनी सुंदर जगह पहले कभी नहीं देखी थी. नग्न औरतों ने उसे नहलाया. युवक सोच रहा था- 'हे इश्वर, लगता है ये राजा मुझे मार डालेगा.'

वह बेहोशी की हालत में था. पूरी ज़िंदगी वह औरतों से भागता रहा था. और आज उसके सामने उसे मालिश करने के लिए नंगी स्त्रियां खड़ी थीं. उसने इतनी सुंदर औरतें कभी नहीं देखी थीं.

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साभार- osho.com

वह कुछ कह नहीं पा रहा था. ऐसा लगता था जैसे उसकी आवाज़ खो गई है. उसके मुंह से सिर्फ आनंद भरी 'आह' निकलती.

इससे ज्यादा वो कुछ कह नहीं पाता. उन औरतों ने उसके कपड़े उतारने शुरू किए. वो स्त्रियां उसे गुलाब की पंखुड़ियों से भरे बाथटब की तरफ ले चलीं. पूरब के देशों में राजा या धनी लोग गुलाबजल से नहाते थे. रात में गुलाब के फूल नहाने के पानी में डाल दिए जाते. सुबह उन्हें पानी से निकाल दिया जाता लेकिन उनकी खुशबू पानी में घुल जाती. फिर वे उसी पानी से नहाया करते.

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साभार- नेटफ्लिक्स

उसने इतनी सुंदर चीजें कभी नहीं देखी थीं. वह सोने का बाथटब था. खुशबूदार तेल से उसकी मालिश हो रही थी. वो किसी तरह वहां से भाग जाना चाहता था.

लेकिन ऐसा लगता था जैसे उसे लकवा मार गया हो. और तभी राजा ने उसे खाने पर बुलाया. उसने इतनी स्वादिष्ट चीजें कभी नहीं खाई थीं. उनकी खुशबू उसे पागल कर रही थी. उसे तो आज तक अपने स्वाद पर नियंत्रण रखना सिखाया गया था.

राजा ने उसे खाना खाने के लिए निमंत्रण दिया. कहा- 'खाओ, लेकिन स्वाद को लेकर अपने अनुशासन को ध्यान में रखना. तुम अपने गुरु के यहां किसी अनुशासन के कारण अपने को नियंत्रित नहीं रखते थे बल्कि वहां खाना ही बेस्वाद होता था. वह तुम्हें ही नहीं किसी को भी बेस्वाद लगता.'

[क्रमशः]


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Posted by: jonahcirclee0184251.blogspot.com

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